डर लग रहा है……

उगते हुए सुरज से 

कीचड मे खिलते नीरज से

युवाओं की आशा से 

परंपरा की भाषा से 

अब डर लग रहा है.

मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा से

सिंदूर के पराक्रम निष्ठा से

विदेशी आक्रमण पर पलटवारोसे

स्वदेशी बने सशक्त हथियारो से 

चांद पर लहराते झेंडे की शान से 

बदलते विश्व में देश के सन्मान से 

अब डर लग रहा है..

सावरकर के काला पानी से 

राणासंगा और झांसी की रानी से

भारत माता की प्रतिमा से

वंदे मातरम की गरिमा से

अब डर लग रहा है..

शिक्षानीती के विचारों से 

कानून और चुनाव के सुधारों से 

भारत की गगन ऊंचाई से 

संस्कृती की गहन गहराई से 

डर लगता है.. क्यों की 

जिस नींव पर चलाई हमने राजनीती

वंशवाद कट्टरता और अहम रही जाती 

परदा उससे अब उठ रहा है 

अंधेरा धीरे धीरे छट रहा है 

परिवर्तन देख चीखते चिल्लाते 

अंदर से मनोबल टूट रहा है

अब डर लग रहा है….

यावर आपले मत नोंदवा

नमस्कार,

 माझ्या ब्लॉगला भेट दिल्याबद्दल धन्यवाद. आपल्या भोवती घडणाऱ्या घटनातून, अनुभवातून आपल्या सर्वांच्या मनात अनेक पडसाद, भावना उमटतात. त्या फक्त शब्दबद्ध करणे हा अल्पसा प्रयत्न आहे.  या प्रवासात आपण सहप्रवासी आहात याचा आनंद आहे. आपण आपली प्रतिक्रिया ब्लॉगवर जरूर नोंदवा.

नवविवाहित दांपत्याच्या स्वप्नांना अलगद उलगडत संसार सजवणारा दहा कवितांचा संग्रह आहे …. सुखचित्र नवे

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